1948 में तुर्की ने फिलिस्तीन के की विभाजन योजना के प्रस्ताव के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में मतदान किया, लेकिन एक साल बाद जब इस्रायल ने संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता के लिए आवेदन किया, तो तुर्की ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था। 1949 में इस्रायल राज्य को मान्यता देने वाला तुर्की पहला मुस्लिम बहुमत था। यहाँ तक की भारत ने 1950 में इस्रायल के अस्तित्व को स्वीकार किया था।
आज भी तुर्की के राजदूत तेल अवीव इस्रायल में बैठे हैं। लेकिन जब यूएई (पहला खाड़ी अरब राष्ट्र और तीसरा अरब देश देश) ने इस्रायल के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं तो तुर्की यूएई के साथ राजनयिक संबंधों को निलंबित करने की धमकी दे रहा है। इस बात से कोई इनकार नहीं है कि तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन को इस्रायल विरोधी माना जाता है और तुर्की-इस्रायल संबंधों में पिछले कुछ वर्षों में गिरावट आई है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अरब देश तुर्की के इजरायल-विरोधी नीति का अनुसरण करें।
यह माना जाता है कि एर्दोगन पुराने ओटोमन (उस्मानी) साम्राज्य को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहा है और उस्मानी साम्राज्य ने अरब दुनिया पर सदियों से शासन किया है और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही था कि अरबों को उस्मानी साम्रज्य से पूर्ण स्वतंत्रता मिली। 1818 में उस्मानी साम्राज्य की राजधानी में एक सऊदी राजा का सिर काट दिया गया था और इन ऐतिहासिक कारणों से अरब-तुर्की संबंध कभी अच्छा नहीं रहा। जब अंग्रेज़ो के समय भारत में उस्मानी ख़लीफ़ा (सुल्तान) के पक्ष में खिलाफत आंदोलन चला था तब भी अरबों को इससे कोई मतलब नहीं था क्योंकि अरब कभी भी उस्मानी ख़लीफ़ा को अपना ख़लीफ़ा नहीं मानते थे लेकिन भारत के मुस्लिम उनको अपना खलीफा मानते थे। । यह अरब राज्य ही थे जो कई अरब-इस्रायल युद्धों में फिलिस्तीन की तरफ से लड़े थे और उन युद्धों में तुर्की एक मूक दर्शक था जब इजरायली टैंक और लड़ाकू विमान मिस्र, सीरिया, जॉर्डन आदि में तबाही मचा रहे थे तो तुर्की ने कोई मदद नहीं किया था। अब खाड़ी अरब देशों को ईरान से सबसे बड़े खतरे का सामना कर रहे हैं और यह स्पष्ट है उनके लिए धर्म से बढ़ कर अपने राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देना चाहिए। और इन अरब राज्यों को एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था बनानी होगी जो तेल के राजस्व पर निर्भर नहीं होगी। इसलिए बहुत से अरब देश इस्रायल के साथ खुले रूप से या परदे के पीछे संबध मजबूत कर आरहे है। ऊपर से यूएई और तुर्की के बीच कतर और लीबिया मेंके मुद्दे पर पहले से ही तनाव चल रहा है।
1949 में तुर्की ने जो किया था, यूएई 2020 में कर रहा है, लेकिन फिर भी एर्दोगन दुखी है। वह वैश्विक मुस्लिमों के नेता बनना चाहते है क्योंकि उनको लगता है कि उस्मानी साम्रज्य का यह हक़ है। और यही कारण है कि वह इजरायल विरोधी राजनीती कर रहे है। वह सोचते है कि अरबों को तुर्की को मुस्लिमों का नेता मान लेना चाहिए है। यह स्पष्ट है कि खाड़ी अरब राज्य (सऊदी अरब और यूएई के नेतृत्व में) तुर्की के बोलबाले को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। सऊदी अरब को लगता है कि वे मुसलमानों के स्वाभाविक नेता हैं क्योंकि वे मक्का और मदीना के पवित्र स्थलों के संरक्षक हैं। आने वाले वर्षों में यह उम्मीद की जाती है कि कई और अरब देश जैसे बहरीन, यमन, ओमान सऊदी अरब इस्रायल को मान्यता दे कर यूएई के कदमों का अनुसरण करें। यह तुर्की और ईरानी इजरायल विरोधी नीतियों के लिए एक बड़ा झटका होगा। यूएई ने फिलिस्तीनी लोगों को नहीं छोड़ा है और वे एक नए फिलिस्तीनी राज्य के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यूएई फिलिस्तीन के लिए इस्रायल के साथ अपने सभी संबंधों तोड़ दे।
यदि एर्दोगन गंभीर है तो तुर्की को इजरायल को दी गयी मान्यता वापस लेना चाहिए और इस्रायल के साथ अपने राजनयिक संबंधों को तोडना चाहिए। और उसके बाद ही तुर्की यूएई-इजरायल शांति समझौते पर सवाल उठाने का कोई नैतिक अधिकार होगा। और एर्दोगन यूएई जैसे किसी भी संप्रभु राज्य की विदेश निति को तय नहीं कर सकते है। आज अरब दुनिया के किसी भी भविष्य के तुर्की वर्चस्व का विरोध करने के लिए शक्तिशाली और संसाधनपूर्ण हैं।
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