Saturday, August 15, 2020

इज़राइल और यूएई (संयुक्त अरब अमीरात) के बीच का ऐतिहासिक शांति समझौता

इज़राइल अरब देशों के बीच में स्थित है। इजरायल की सभी सीमाएं अरब राज्यों के साथ मिलती है। लेकिन यह काफी आश्चर्यजनक है कि अभी तक केवल दो अरब देशों (मिस्र और जॉर्डन) के इजरायल के साथ राजनयिक संबंध हैं।

 

चित्र श्रोत - https://www.science.co.il 

आज भी बहुत सारे मुस्लिम देश या तो इजरायल को मान्यता नहीं देते हैं या उनके इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध नहीं हैं। यहां तक ​​कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश को इजरायल के साथ राजनयिक संबंध बनाने में 40 से अधिक साल लग गए क्योंकि भारतीय नेताओं को मुस्लिम वोट बैंक खोने का डर था।

 

चित्र श्रोत - विकिपीडिया। यह चित्र दीखता है कि दुनिया के किन किन देशों ने इज़राइल को मान्यता दिया है और किन किन देशों का उनसे राजनयिक सम्बन्ध है।

दुनिया की राजनीति पिछले कुछ वर्षों में नाटकीय रूप से बदल गई है। "सुन्नी" अरबों के पास इज़राइल की तुलना में "शिया" ईरान अधिक बड़ा दुश्मन हैं। अक्सर यह कहा जाता है कि आपके दुश्मन का दुश्मन आपका दोस्त होता है। ईरान इस ऐतिहासिक शांति समझौते के कारणों में से एक हो सकता है लेकिन ईरान के चलते ही कुछ वर्षो से अरब और इज़राइल चुपके से आपस में सहयोग करना शुरू कर दिया था। आज दुनिया में तीन मुख्य मुस्लिम गुटों के बीच एक भयंकर प्रतिद्वंद्विता चल रही है - सऊदी के नेतृत्व वाला सुन्नी गुट, ईरान का शिया गुट और तुर्की का गुट यमन से सीरिया से लीबिया तक इन गुटों के समर्थक एक दूसरे से लड़ रहे हैं। इन लड़ाइयों में मुस्लिम ही मुस्लिमों के खून के प्यासे हो गए है। अरब पिछली कुछ शताब्दियों में कभी भी ईरानियों और तुर्कों की तुलना में पारंपरिक रूप से एक बड़ी सैन्य शक्ति नहीं रही है। आज भी अरब दुनिया बहुत उच्च हथियार होने के बावजूद बहुत मजबूत नहीं है। अमेरिका अभी भी अपने अरब सहयोगियों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन अमेरिका का मुख्य ध्यान चीन पर है। इज़राइल इस क्षेत्र का सबसे उन्नत और शक्तिशाली देश है और इज़राइल के साथ सुन्नी अरब भी बिना अमेरिकी मदद के ईरान तक खड़े हो सकते हैं। और ईरान स्पष्ट रूप से चीनी गुट के करीब जा रहा है, इसलिए इससे अरबों को अमेरिका का अधिक सहयोग मिलेगा और शायद भारत जिसे चीन के प्रतिद्वंदी भी मदद के लिए जाये।

यूएई-इज़राइल शांति समझौते के कई अन्य कारण हैं - व्यापार, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, पूँजी निवेश आदि। इज़राइल दुनिया के उच्च तकनिकी के सबसे बड़े केन्द्रो में से एक है और अरबों के पास अकूत पैसा है। इससे दोंनो की अर्थव्यवस्था को बहुत फायदा होगा। आने वाले दशकों में तेल को तागत कम हो जाएगी और अरबों को राजस्व के वैकल्पिक तरीके खोजने होंगे। यूएई इस मामले में आगे है और यह गैर-तेल संसाधनों से अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उत्पन्न करता है और इस देश में दुबई और अबू धाबी जैसे बड़े शहर हैं। इजरायल अत्याधुनिक तकनीक की दृष्टि से अरबों को बहुत बड़ी मदद कर सकता है। इज़राइल भी रेगिस्तान में बसा देश है लेकिन आज उसके पास पिने का पर्याप्त पानी है और वहाँ अच्छी खासी खेती होती है। प्रधानमंत्री मोदी जब इज़राइल गए थे तो वो भी समुद्र के पानी को पिने लायक और खेती के लायक बनाने वाले संयंत्र देखने गये थे। ऐसी तकनीक से अरब दुनिया को तस्वीर बदल सकती है। यूएई के युवराज मोहम्मद बिन जायद मध्य पूर्व के सबसे प्रभावशाली और दूरदर्शी राजनेता हैं (यहां तक ​​कि उनके सऊदी युवराज एमबीएस से भी अधिक समझदार उन्हें माना जाता है) मोहम्मद बिन जायद अतीत से निकल कर नए भविष्य की ओर जाना चाहते है और इसलिए उन्होंने इज़राइल के साथ इस शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए। उनके पास अपने देश को एक गैर-तेल अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित करने के लिए एक विजन है और यहां तक ​​कि सऊदी युवराज एमबीएस भी उनकी दृष्टि का अनुसरण कर रहे है। और यूएई ने इजरायल से कुछ रियायतें भी लिया हैं जैसे इजरायल फ़िलहाल वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों को अपने देश का हिस्सा नहीं घोसित करेगा, इमरती नागरिक अल-अक्सा मस्जिद का दौरा कर सकते हैं। इस नए रिश्ते से अरबों और इज़राइल को एक दूसरे को समझने का अच्छा मौका मिलेगा। मुझे लगता है कि आने वाले वर्षों में कई अरब देश जैसे बहरीन और सऊदी अरब भी इज़राइल से शांति समझौता कर सकते है।

अब समय गया है कि अरब दुनिया और इज़राइल एक-दूसरे के अस्तित्व को पहचाने। केवल राजनयिक संबंधों की स्थापना में इतने दशक लग गए और मुझे लगता है कि यह अरब जगत के लिए एक ऐतिहासिक समझौता है। अरब राजतंत्रों को सार्वजनिक रूप से नए विश्व व्यवस्था की वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए और इजरायल को भी अरब दुनिया की आकांक्षाओं को समझना चाहिए। 1978-79 में मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति अनवर सादात ने इजरायल को मान्यता दी थी और उसे बाद 1994 में जॉर्डन ने इजरायल के साथ राजनयिक सम्बन्ध शुरू किया था और आज इसी यात्रा का तीसरा पड़ाव है।


Importance of historic peac deal between Isreal and UAE

Israel is located in the middle of Arab world. Israel shares all its border with Arab states. But it is quite surprising that only two Arab countries (Egypt and Jordan) have diplomatic relations with Israel.

Image Source - https://www.science.co.il/

Let us see which all countries doesn't have diplomatic relations with Israel. We can find that mostly Muslim countries either don't recognize Israel or they don't have diplomatic relations with Israel. Even it took more than 40 years for a secular country like India to have diplomatic relations with Israel (because politicians feared Muslim vote bank).

Image Source - Wikipedia

The geo politics of world have changed dramatically over last few years. Sunni Arabs have more issues with a Shia  Iran than Israel. Its often said that enemy of your enemy is a friend. Iran may just be one of the reasons for this historic peace deal but Iran was the main reason Arabs and Israelis started to collaborate with each other. A fierce rivalry is going on between three main Muslim blocks - Saudi led Sunni Arab block, Iran led Shia block and a Turkish block. From Yemen to Syria to Libya, proxies of these groups are fighting each other. Arabs have never been traditionally a big military power compared to Iranians and Turks in last few centuries. Even today. Arab world is not very strong despite very high end weapon platforms. America is still be committed to protect its Arab allies but now China is the main priority of America. Israel is the most advanced and powerful country in the region and Sunni Arabs along with Israel can stand up to Iran even without American help. And Iran is clearly going closer to Chinese camp so this may bring more attention from America and may be other countries like India.

There are many other reasons for UAE-Israel peace deal - trade, technology transfer , investments etc. Israel is one the main centers of high tech innovations and Arabs have the money. Together they can achieve a greater height. In coming decades, Oil may loose its shine and Arabs will have to find alternative ways of revenue. UAE is gar ahead in this regard and it generate a big chunk of its revenue from non-oil resources and it has mega cities like Dubai and Abu Dhabi. Israeli cutting edge technology can of great help. UAE's crown prince Mohammed bin Zayed is the most influential & visionary politician of middle east (even more than his Saudi crown prince MBS). He stood out from the rest and has signed a peace deal with Israel. He has a vision to develop his country as a non-oil economy and even MBS is following his vision. And on top of it , UAE has extracted some concessions from Israel like suspension of annexation of parts of West Bank by Israel, Emirati citizens can visit Al-Aqsa Mosque etc. This may be the channel by which Arabs can convey their message to Israel and they can use such relationship as leverage with Israel. Many Arab countries like Bahrain (and may be Saudi Arabia) can follow the foot-step.

The time has come for Arab world and Israel to recognize the existence of each other. It took so many decades for establishment of diplomatic relations and I think this is a historic deal for Arab world. Arab monarchies must accept the reality of new world order publicly and Israel also must understand the aspirations of Arab world. This is a new stepping stone in the journey which was started by former Egyptian President in 1978-79 (when Egypt had recognized Israel).

Wednesday, August 12, 2020

सऊदी - पाकिस्तान संबंधों में अभूतपूर्व तनाव

हाल के सप्ताहों में हमने सऊदी - पाकिस्तान संबंधों में कुछ अभूतपूर्व तनाव देखा हैं।

पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने सऊदी अरब को एक टीवी साक्षात्कार में खुली धमकी दी थी और सऊदी अरब ने हाल ही में पाकिस्तान को एक बिलियन अमरीकी डालर (3.2 बिलियन ऋण में से जो उन्होंने पिछले साल पाकिस्तान को दिया था) वापस करने के लिए कहा। टीवी पर पाकिस्तान ने धमकी दी थी कि अगर ओआईसी (सऊदी नेतृत्व वाला इस्लामिक संगठन) कश्मीर मुद्दे पर भारत के खिलाफ प्रस्तुत करने में विफल रहता है तो वह ओआईसी से अलग हो जायेगा। ऐसे संकेत हैं कि सऊदी अरब पाकिस्तान को तेल की बिक्री के लिए देर से भुगतान विकल्प को आगे नहीं बढ़येगा है। ऐसा माना जाता है कि पाकिस्तान ने चीन से पैसा उधार लेकर सऊदी अरब को 1 बिलियन अमरीकी डॉलर लौटाए हैं। कुछ समाचारों के अनुसार सउदी ने अब अतिरिक्त 1 बिलियन अमरीकी डालर की मांग की है। हमने पिछले कुछ वर्षों में देखा है कि पाकिस्तान सऊदी अरब के प्रतिद्वंद्वियों तुर्की और ईरान के करीब जा रहा है।

 

मुझे लगता है कि यह पश्चिम एशिया में नए भू-राजनीति समीकरण का परिणाम है। सऊदी अरब अमेरिका के करीब हैं और अब वे इस्रायल के करीब भी हो हैं। अमेरिका और इजरायल के साथ अपने अच्छे संबंधों के कारण, सऊदी-भारत संबंध बहुत अच्छा हो गया है। यह अलग बात है कि मोदी सरकार भारत सऊदी अरब के बढ़ती मित्रता का क्रेडिट ले लेती है लेकिन यह इस्रायल के बिना नहीं हो पता।  दूसरी तरफ पाकिस्तान चीनी कैंप में मजबूती से खड़ा है। चीन ईरान के साथ 400 बिलियन अमरीकी डालर के बड़े सौदे पर हस्ताक्षर करने जा रहा है। इस प्रकार पाकिस्तान अनिच्छा से खुद को ईरान के साथ चीनी शिविर में पाता है। सऊदी अरब यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उनके करीबी सहयोगी पाकिस्तान का ईरान के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार हो। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान-तुर्की संबंधों में मजबूती आई है और एर्दोगन के नए ओटोमन साम्राज्य केसपने को कभी रियाद में पसंद नहीं किया जाएगा। सऊदी अरब और तुर्की के सम्बद्ध सदियों के ख़राब है। 1818 में इस्ताम्बुल में सऊदी राजा अब्दुल्ला बिन सऊद के सिर कलम कर दिया गया था और अरब दुनिया के कई हिस्सों पर तुर्की का प्रथम विश्वयुद्द तक कब्ज़ा था।

सऊदी नेतृत्व वाले सुन्नी ब्लॉक के साथ भी चीन के अच्छे संबंध हैं लेकिन चीन जरूरत पड़ने पर ईरान और पाकिस्तान को अधिक महत्व देगा। उसी तरह, सऊदी अरब किसी भी दिन चीन पर अमेरिका को तरजीह देगा। एक और पहलू यह है कि पाकिस्तान को लगता है कि वे मुस्लिम उम्मा (दुनिया) के नेता हैं। उन्हें लगता है कि अंतरराष्ट्रीय संबंध द्विआधारी हैं। उनकी उम्मीद है कि पाकिस्तान के सभी दोस्त भारत के साथ अपने संबंधों को ख़राब करें। यहां तक ​​कि चीन के पास भारत के साथ भारी व्यापार है और पिछले साल चीन ने भारत के साथ व्यापार से लगभग 60 बिलियन अमरीकी डालर (पाकिस्तान ने चीन के कुल निवेश के बराबर) कमाया था। सऊदी अरब भारत के साथ अपने संबंधों को कैसे ख़राब कर सकता है? भारत दुनिया में तेल का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है और आज के तेल बाजार में खरीददारों का बोलबाला है। भारत सऊदी निवेश के लिए उत्कृष्ट अवसर प्रदान करता है (जैसे सऊदी सरकार मुकेश अम्बानी के तेल कंपनी में निवेश कर रहे है ) और अधिक भारतीय (पाकिस्तानियों की तुलना में) सऊदी अरब में रहते हैं और काम करते हैं। पाकिस्तानी समाचार चैनलों और सोशल मीडिया ने सऊदी की आलोचना और तुर्की का समर्थन करना शुरू कर दिया है। कल शाम #TurkeyIsNotAlone पाकिस्तानी यूजर्स के ट्वीट के कारण इंटरनेट पर ट्रेंड कर रहा था। इस तरह की सार्वजनिक नाराजगी सऊदी अरब, यूएई आदि को कभी पसंद नहीं होगा। कई बार पाकिस्तानी जनता और नेता इस्लाम के मुद्दे पर भावनाओं में बह जाते हैं और अपने राष्ट्रीय हितों को भूल जाते हैं। उनको लगता है कि इस्लाम के नाम पर इस्लामिक दुनिया चलती है और सारी इस्लामी दुनिया एक है। पाकिस्तान को लगता है कि सारे मुस्लिम मुल्क भारत के खिलाफ खड़े हो। लेकिन वहीं पाकिस्तान चीन में मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार पर चुप रहता है। 

मुझे लगता है कि पाकिस्तान को चीन से कुछ आश्वासन मिला होगा कि वे पाकिस्तान का हर हाल में साथ देंगे कर देंगे और पाकिस्तान अमेरिकी सहयोगियों (जैसे सऊदी अरब,यूएई ) को निशाना बना सकता है। पाकिस्तान के पास बिना चीनी समर्थन के सउदी को चुनौती देने की हिम्मत नहीं है। पश्चिम और दक्षिण एशिया में नए शीत युद्ध शुरू होने वाला है। पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, रूस चीनी शिविर का हिस्सा बन सकते हैं और भारत, इज़राइल, सऊदी अरब, यूएई आदि अमेरिकी शिविर का हिस्सा बन सकते हैं।

1990 में भारतीय लोगों को कुवैत से निकलना और 2022 में भारतीय लोगों को यूक्रेन से निकालने में अंतर

  1990 में कुवैत से 170,000 भारतीयों को हवाई मार्ग से निकलना मानव इतिहास में सबसे बड़ी एयरलिफ्ट (जिसमें नागरिक विमानों का इस्तेमानल किया गया...

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