Friday, March 4, 2022

1990 में भारतीय लोगों को कुवैत से निकलना और 2022 में भारतीय लोगों को यूक्रेन से निकालने में अंतर

 1990 में कुवैत से 170,000 भारतीयों को हवाई मार्ग से निकलना मानव इतिहास में सबसे बड़ी एयरलिफ्ट (जिसमें नागरिक विमानों का इस्तेमानल किया गया) है। दु

आज हजारों भारतीय छात्र यूक्रेन में फंसे हुए है और भारत सरकार उन सभी को निकालने की पूरी कोशिश कर रहा है। 1990 की निकासी की तुलना में यूक्रेन से निकासी एक छोटा काम है। लेकिन दोनों ऑपरेशन अलग अलग हैं।

सद्दाम हुसैन के नेतृत्व में इराक ने 2 अगस्त 1990 को कुवैत पर आक्रमण किया और युद्ध केवल 2 दिनों में समाप्त हो गया। इराक ने मात्र 2 दिनों में पूरे कुवैत पर कब्जा कर लिया। भारतीय निकासी 13 अगस्त को शुरू हुई और यह 20 अक्टूबर 1990 तक जारी रही। यह भारत के सबसे अच्छे राजनयिक प्रयासों में से एक था जब भारत को इराक, कुवैत, अमेरिका और जॉर्डन के साथ समन्वय करना पड़ा। यह तय किया गया कि भारतीय इराक के रास्ते सड़क मार्ग से जॉर्डन जाएंगे। और अम्मान (जॉर्डन) से 170,000 भारतीयों को एयर इंडिया की 488 उड़ानों में एयरलिफ्ट किया गया था। भारत को अपने लोगो की सुरक्षित निकासी के लिए इराकी आक्रमण की कठोर निंदा नहीं करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अमेरिका के नेतृत्व में 35 देशों ने 17 जनवरी 1991 को ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म शुरू किया और खाड़ी युद्ध 28 फरवरी 1991 तक जारी रहा। तो, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि भारतीय निकासी ऐसे समय में हुई जब कोई युद्ध नहीं लड़ा जा रहा था।

भारत यूक्रेन से करीब 20,000 भारतीय छात्रों को निकालने की कोशिश कर रहा है। यूक्रेन पर रूस का हमला जारी है और भीषण युद्ध चल रहा है। इसलिए हमारी सरकार को भारतीय छात्रों को युद्ध क्षेत्र (जैसे खार्किव, सूमी, कीव जैसे शहरों) के तहत भी निकालना पड़ता है। खार्किव में लड़ाई में एक भारतीय छात्र की भी जान चली गई है। कल, भारत को रूस से खार्किव में भारतीय छात्रों को एक सुरक्षित मार्ग देने का अनुरोध करना पड़ा और रूसियों ने 6 घंटे की खिड़की देने पर सहमति व्यक्त की ताकि भारतीय कुछ मानवीय गलियारे के माध्यम से रूसी कब्जे वाले क्षेत्र में जा सकें। और यूक्रेन एक बड़ा देश है। इसलिए भारत सरकार को रोमानिया, मोल्दोवा, स्लोवाकिया, हंगरी और पोलैंड और यहां तक ​​कि रूस जैसे पड़ोसी देशों से अपने छात्रों को एयरलिफ्ट कर रहा है। इसके अलावा यूक्रेन के बॉर्डर क्रॉसिंग पर बड़ी-बड़ी लाइनें हैं और कुछ जगहों पर यूक्रेन के बॉर्डर गार्ड भारतीय छात्रों के साथ बदसलूकी कर रहे हैं। भारत सरकार के 4 मंत्री भारतीय छात्रों की निकासी की सुविधा के लिए 4 अलग-अलग देशों में हैं।

1990 में भारतीय लोगो को निकालने का काम बहुत बड़ा था लेकिन 1990 और 2022 की तुलना करना सही नहीं है क्योंकि अभी भारतीय छात्रों को युद्ध के बीच से निकलना पड़ रहा है जबकि 1990 में भारतीय उस समय निकले थे जब युद्ध नहीं हो रहा था।


यूक्रेन का इतिहास

 यूक्रेन एक बड़ा यूरोपीय देश है। क्षेत्रफल के हिसाब से यूक्रेन रूस के बाद यूरोप का सबसे बड़ा देश है। यूक्रेन जर्मनी से डेढ़ गुना , ब्रिटेन से ढाई गुना अधिक बड़ा है। हालाँकि डोनबास के दो देश और क्रीमिया के अलग होने से बाद यूक्रेन थोड़ा छोटा हो जायेगा लेकिन फिर भी यह यूरोप में दूसरे स्थान पर ही रहेगा। आबादी के हिसाब से यूक्रेन यूरोप का 8वा सबसे बड़ा देश है।

रूसी सभयता की शुरुवात वाइकिंग लोगो के पूर्वी यूरोप में स्लाविक क्षेत्रों में बसने से हुई थी। इसे "कीवेन रूस" (नौवीं सदी से बारहवीं सदी) कहा जाता था जिसकी राजधानी वर्तमान यूक्रेन की राजधानी कीव और उससे पहले रूसी शहर नोव्गोरोड थी। रूस , बेलारूस और यूक्रेन अपने आप को कीवेन रूस का उत्तरधिकारी मानते है। मंगोलो ने कीवेन रूस को तहस नहस कर डाला और इसके कई टुकड़े हो गए। उसके बाद तेरहवीं सदी में कीवेन रूस का एक हिस्सा मॉस्को पर राज करने लगा (यही राज्य आगे चल कर रूसी साम्रज्य बना) लेकिन पूर्वी कीवेन रूस (जो आज का यूक्रेन है) मंगोलों के एक हिस्से (गोल्डन होर्डे) के कब्जे में आ गया। चौदहवीं सदी में पोलैंड ने वर्तमान यूक्रेन के बड़े भूभाग पर कब्ज़ा कर लिया और गोल्डन होर्डे के उत्तराधिकारी क्रीमियन खानेत ने क्रीमिया सहित वर्तमान दक्षिण यूक्रेन पर कब्ज़ा कर लिया। मंगोल हमलों के बाद से रूस और यूक्रेन अलग हो गए थे इसलिए धीरे धीरे दोनों क्षेत्रों में पुराने पूर्वी स्लाविक भाषा से तीन भाषाओ का जन्म हुआ - यूक्रेनी, बेलारूसी और रूसी भाषा। चूँकि यूक्रेन पर पोलैंड का कब्ज़ा रहा तो बहुत से शब्द पोलिश भाषा के शब्द यूक्रेनी भाषा में आ गए।

सत्रहवीं सदी में यूक्रेनी कोसैक (पूर्वी स्लाविक ईसाई लोग जो यूक्रेनी भाषा बोलते थे) ने पोलैंड लिथुआनिया के खिलाफ विद्रोह कर दिया और कोसैक हेटमैनेट नाम का एक छोटा देश बनाया। यूक्रेन के लोग इसी देश को यूक्रेन की शुरुवात मानते है। लेकिन ये लोग पोलैंड के सामने कमजोर थे और इन्होने रूसी साम्राज्य की अधीनता स्वीकार कर लिया। इसे पेरियास्लाव की संधि (1654) कहा जाता है। उसके बाद से यह क्षेत्र 1991 तक रूसी कब्जे में रहा। रूसी जार हमेशा से यूक्रेन को अपना क्षेत्र मानते थे इसलिए वो यूक्रेन की सीमा का विस्तार करने लगे। रूसी साम्राज्य ने पोलैंड को कई युद्धों में हराया और उसके भूभाग को पोलैंड में शमिल कर लिया। 1917 में रूसी साम्राज्य का पतन हुआ और बोल्शेवक कम्युनिस्ट रूस पर राज करने लगे और सोवियत संघ का उदय हुआ। सोवियत संघ में बहुत से गणतंत्र थे जैसे रूस , बेलारूस, यूक्रेन इत्यादि। सोवियत संघ ने रूसी गणतंत्र से एक बड़ा हिस्सा ले कर 1922 में यूक्रेन गणतंत्र को दे दिया और इसमें रूसी भाषा बोलने वाले लोग बहुत राहत थे। बहुत से रूसी लोगों के पलायन के बाद भी आज इस क्षेत्र में बहुत रूसी रहते है और इसी के एक हिस्से डोनबास में पुतिन ने दो नए देश बनवाया है।

जब दूसरे विश्वयुद्ध की 1939 में शुरुवात हुई तो जर्मनी और सोवियत संघ ने मिल कर पोलैंड पर कब्ज़ा किया और सोवियत संघ ने पोलैंड का कुछ हिस्सा यूक्रेन को दे दिया। फिर जर्मनी और सोवियत संघ के बीच युद्ध हुआ और जर्मनी ने सोवियत संघ के यूक्रेन पर कब्ज़ा कर लिया। बहुत से यूक्रेन के लोगो ने जर्मनी का साथ भी दिया और बहुत से लोग सोवियत संघ के साथ थे। फिर सोवियत संघ युद्ध में विजयी हुआ और उसने अपने भू भाग को वापस जर्मनी से ले लिया। उसके बाद सोवियत संघ ने पोलैंड को पश्चिम में स्थानांतरण कर दिया। मतलब यह कि पूर्वी जर्मनी पोलैंड को मिला और पूर्वी पोलैंड पर सोवियत संघ ने कब्ज़ा किया और उसे यूक्रेन को दे दिया। स्टालिन के बाद निकिता ख्रुश्चेव सोवियत संघ के राष्ट्रपति बने और वे जन्म से उक्रेनी थे। इसलिए उन्होंने 1954 में उन्होंने क्रीमिया को रूस से हटा कर यूक्रेन को दे दिया। इस तरह उक्रेनी गणराज्य इतना बड़ा हुआ। यह अलग बात है कि पुतिन ने 1954 का हवाला देते हुए 2014 में क्रीमिया पर फिर से कब्ज़ा कर लिया।





यह चित्र दिखलाता है कि कैसे यूक्रेन एक छोटे देश से बड़ा देश बना। इस चित्र में केवल पीला वाला क्षेत्र ही यूक्रेन का अपना था बांकी सब रूस ने दिया है। चित्र श्रोत - wikimedia commons.

1991 तक सोवियत संघ में 15 गणराज्य थे और जब सोवियत संघ टूटा तो ये सारे 15 गणराज्य अलग अलग हो गए। रूस का बड़ा भूभाग कज़ाकिस्तान , यूक्रेन आदि को दे दिया गया था लेकिन वो सब रूस को नहीं मिला। पहले सोवियत संघ एक ही था तो उसके गणराज्यों की सीमा बदलती रहती थी क्योंकि सब तो एक ही देश था। किसी को पता नहीं था कि सोवियत संघ ऐसे टूट जायेगा और आज यह मध्य एशिया, काकेशस, यूक्रेन इत्यादि में बहुत बड़ी समस्या है।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का यह कहना गलत है कि यूक्रेन एक देश नहीं है

 मैं राष्ट्रपति पुतिन से सहमत नहीं हूं कि यूक्रेन एक देश नहीं है।

यूक्रेन और रूस वास्तव में कीवन रूस से सांस्कृतिक रूप में निकले ही और उनकी भाषाएं एक ही भाषा परिवार से हैं। यह भी तथ्य है कि आधुनिक यूक्रेन के पूर्ववर्ती - कोसैक राज्य 1654 में बहुत छोटा था और विभिन्न रूसी साम्राज्यों ने यूक्रेन को बड़ा बनाया है । यूक्रेन को क्रीमिया जैसी कुछ हिस्सा मिला जो ऐतिहासिक रूप से यूक्रेनी नहीं थी और स्वतंत्रता के समय, पूर्व में कुछ क्षेत्र रूसी बहुल क्षेत्र थे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यूक्रेन एक देश नहीं है।



Image Source - wikimedia

आइए एक और उदाहरण लेते हैं। पाकिस्तान शब्द एक सदी पुराना शब्द भी नहीं है। मानवता के इतिहास में पाकिस्तान कभी भी एक देश नहीं था और इसकी कोई दूर की भाषा, संस्कृति आदि नहीं थी। आज भी भारत में उतने ही मुसलमान हैं जितने पाकिस्तान। 1947 तक के इतिहास में पाकिस्तान के क्षेत्र को हमेशा भारत के रूप में देखा गया है। लेकिन अंग्रेजों ने भारत को विभाजित किया और पश्चिमी भारत में धर्म के नाम पर एक नया कृत्रिम देश बनाया। हम भारतीयों ने पाकिस्तान को देश के रूप में स्वीकार कर लिया है। यूक्रेन के मामले में, इसकी एक संस्कृति, भाषा और इतिहास भी है। आधुनिक यूक्रेन का पश्चिमी भाग जो ऑस्ट्रिया-हंगरी और पोलैंड के अधीन था, रूस के साथ बहुत कम चीजें समान थीं। हाँ, "यूक्रेन" शब्द का अर्थ सीमावर्ती भूमि है लेकिन यह रूस से अलग था। इतिहास में कई बार रूस ने यूक्रेनी संस्कृति को दबाने की कोशिश की है।

लगभग 35 लाख यूक्रेन के लोग सोवियत तानाशाह स्टालिन की नीतियों के परिणामस्वरूप 1932-33 के महान यूक्रेनी अकाल मारे गए थे। यह 1932-33 के सोवियत अकाल का हिस्सा था लेकिन यूक्रेन सबसे अधिक प्रभावित थे। यह अलग बात है कि तानाशाह स्टालिन ने रूस और कई अन्य सोवियत संघ के गणराज्यों के भी लाखों लोगो को मारा था (कम्युनिस्ट तानाशाह तो ऐसे ही करते है)। यूक्रेन रूस के साथ सोवियत संघ के संस्थापक सदस्यों में से एक था। वास्तव में, रूसियों ने कभी भी यूक्रेन (सीमावर्ती भूमि) को अपना हिस्सा नहीं माना, लेकिन सोवियत काल के दौरान कई उक्रेनियन (मुख्य रूप से पश्चिमी वाले) ने खुद को रूसी के रूप में कभी नहीं देखा। 1991 में 92% से अधिक यूक्रेनियन ने स्वतंत्रता के लिए मतदान किया। रूसी बहुलसेवस्तोपोल शहर में भी 57% लोगों ने स्वतंत्रता का समर्थन किया था।

समय आ गया है जब रूसियों (पुतिन सहित) को यह महसूस करना चाहिए कि यूक्रेन एक स्वतंत्र देश है। जब हम भारतीय पाकिस्तान को एक देश के रूप में स्वीकार कर सकते हैं तो रूस भी यूक्रेन को स्वीकार कर सकते हैं। जब सिंध के बिना हिन्द हो सकता है तो कीव के बिना रूस क्यों नहीं हो सकता है। जिस क्षण रूस दिल से यूक्रेन को एक देश के रूप में स्वीकार कर लेगा, रूस और यूक्रेन की आधी समस्या का समाधान हो जाएगा।

अटल बिहारी वाजपेयी सरकार का परमाणु परिक्षण करने का निर्णय एक अच्छा निर्णय

सोवियत संघ के टूटने के बाद यूक्रेन दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी परमाणु शक्ति देश था। यूक्रेन के पास 1,272 बड़े परमाणु हथियार और 2,500 सामरिक परमाणु हथियार (छोटे पेलोड परमाणु हथियार) थे (कुल 3772 परमाणु बम)।

1994 में यूक्रेन ने अपने परमाणु शस्त्रागार को छोड़ने का फैसला किया। इस समझौते को बुडापेस्ट ज्ञापन के रूप में जाना जाता है और इस समझौते में अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी दी। अगर यूक्रेन ने परमाणु हथियार नहीं छोड़े होते तो रूस इतनी आसानी से यूक्रेन पर हमला नहीं करता। आज यूक्रेन का हर नागरिक उस फैलसे पर पछता रहा है।

पाकिस्तान ने 1971 के युद्ध में अपमानजनक हार और भारत का 1974 का पहला परमाणु परीक्षण के बाद अपनी परमाणु योजना पर काम करना शुरू किया । अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप के बाद, चीन ने पाकिस्तान को परमाणु बम बनाने में मदद की और अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके परमाणु हथियारों के लिए किसी भी आलोचना से बचाया। अमेरिकियों ने पाकिस्तानियों को बहुत पैसा भी दिया। ऐसा माना जाता है कि चीन के प्रत्यक्ष और अमेरिका के अप्रत्यक्ष मदद से पाकिस्तान ने 1980 के दशक के अंत तक परमाणु हथियार बना लिए थे। ऐसा माना जाता है कि बेनजीर भुट्टो सरकार ने (वास्तव में विदेश मंत्री ने) भारत की वी पी सिंह सरकार को दिल्ली में एक वार्ता के दौरान परमाणु हथियार की धमकी दी थी। भारत के पास कोई जवाब नहीं है और भारत सरकार ने अपने परमाणु हथियारों के बारे में गंभीरता से सोचने का फैसला किया क्योंकि चीन भी तागतवर होता जा रहा था। पी वी नरसिम्हा राव सरकार ने 1995 में परमाणु परिक्षण का फैसला किया लेकिन अमेरिकियों को इन परीक्षणों के बारे में पता चला और उन्होंने भारत पर परमाणु परीक्षण की योजना को छोड़ने का दबाव डाला।


Image Source - BBC

पी वी नरसिम्हा राव ने अगले प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को परमाणु परीक्षण करने की सलाह देते हुए एक नोट दिया था। हालांकि वाजपेयी सरकार 13 दिनों में गिर गई और जब वाजपेयी सरकार 1998 में फिर से सत्ता में आने पर 5 परमाणु परीक्षण किए। परमाणु हथियार सुरक्षा छतरी की गारंटी नहीं देते हैं लेकिन ये मजबूत निवारक हथियार हैं। अब चीन या पाकिस्तान को भारत पर पूर्ण युद्ध छेड़ने से पहले कई बार सोचना पड़ सकता है। अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान आदि ने परमाणु परीक्षणों के लिए भारत पर प्रतिबंध लगाया लेकिन यह भुगतान करने योग्य कीमत थी। अब इन सभी देशों के साथ भारत के अच्छे संबंध हैं और मुझे लगता है कि 1998 के परमाणु परीक्षण भारत गणराज्य के सबसे साहसिक निर्णयों में से एक थे।

Monday, September 28, 2020

बिहार 2020 चुनावों में जातीय समीकरण

2020 में भी भारत की राजनीति में जाति और धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसा मन जाता है कि बिहार और यूपी में जाति की राजनीति बहुत अधिक होती है लेकिन किन यह पूरे भारत की समस्या है। जाति के समीकरण महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल आदि जैसे अधिक शिक्षित और विकसित राज्यों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • बिहार में जाति की शक्ति को उस जाति के विधायक की संख्या के अनुपात में माना जाता है। कोई नेता कुछ करे या न करे उनके जाती के लिए यह देख कर खुश रहते है कि वो सत्ता में है। कई अन्य राज्यों के विपरीत, बिहार में मुद्रा शक्ति की तुलना में राजनीतिक शक्ति का अधिक बोलबाला है। हमेशा की तरह 2020 के विधानसभा चुनाव में जाति की राजनीति महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली है। लेकिन फिर हर गुजरते चुनाव के साथ जाति की रेखाएँ धुंधली होती जा रही हैं। अन्यथा मोदी 2014 और 2019 के आम चुनाव में बिहार नहीं जीत पाते। लेकिन 2015 के आम चुनाव में जाति की राजनीति फिर से सामने आई और ग्रैंड अलायंस ने भाजपा को अपमानित किया। आइए देखते हैं कि जाति समीकरण 2020 के चुनाव को कैसे प्रभावित कर सकता है।
  • राजद (यादव + मुस्लिम) का मुख्य वोट बैंक अभी भी उनके साथ है। और राजद-कांग्रेस गठबंधन का मतलब है कि उन्हें लगभग सभी मुस्लिम वोट मिलेंगे। इस गठबंधन में उत्तर-पूर्व बिहार (कटिहार और पूर्णिया का क्षेत्र जो बांग्लादेश के बहुत निकट है) में मुस्लिम बहुल सीटों पर हावी होने की क्षमता है। लेकिन ओवैसी की एआईएमआईएम राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन को नुकसान पहुंचा सकती है क्योंकि उन्होंने पिछले साल किशनगंज उपचुनाव में जीत हासिल कर सबको चौंका दिया था।
  • बीजेपी धीरे-धीरे यादव समुदाय की दूसरी पसंद बनती जा रही है। अभी भी आरजेडी यादव समुदाय की पहली पसंद है लेकिन बीजेपी कुछ वोट हासिल करने की कोशिश कर रही है क्योंकि बीजेपी केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय (यादव समुदाय के एक नेता) के रूप में एक नया नेतृत्व बनाने की कोशिश कर रही है। कुछ क्षेत्रों में जहां बीजेपी के पास रामकृपाल यादव और नित्यानद राय जैसे मजबूत यादव नेता हैं, वहां बीजेपी को महत्वपूर्ण यादव वोट मिल सकते हैं।
  • गैर-यादव ओबीसी में, कोइरी और कुशवाहा समुदाय उपेंद्र कुशवाहा के उभरने के बावजूद नीतीश कुमार के साथ हैं। नीतीश कुमार की लोकप्रियता के कारण अन्य ओबीसी (जिसे एमबीसी कहा जाता है) के बीच जदयू की पहुंच राजद और भाजपा के मुकाबले अधिक है।
  • दलितों में लोजपा के पास पासवान समुदाय के बीच एक वोट बैंक है, लेकिन महादलित (दलितों का एक उप-वर्ग) समुदाय में नीतीश कुमार को बढ़त हासिल है। राजद, कांग्रेस और भाजपा भी दलितों वोट के एक हिस्सों को प्राप्त कर सकते हैं। नीतीश कुमार एमबीसी और महादलितों के बीच वोट बैंक बनाने में बहुत सफल रहे हैं।
  • बीजेपी को सबसे ज्यादा सवर्ण वोट मिलने की संभावना है। कांग्रेस के पास अभी भी उच्च जाति के बीच एक छोटा लेकिन वफादार वोट बैंक है। जेडी (यू) और आरजेडी में कुछ उच्च जाति के नेता हैं जो अअपने क्षेत्रो में स्वजातीय वोट प्राप्त कर सकते हैं। राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह राजपूत हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि रघुवंश बाबू की मौत के बाद राजद ने अपने छोटा लेकिन असरदार राजपूत वोट बैंक खो दिए हैं। साथ ही पिछले साल राजद ने संसद में सामान्य वर्ग के गरीबों के आरक्षण का विरोध किया है।
  • कागज पर एनडीए को जातिय समीकरण में बढ़त हांसिल है। यह स्पष्ट है कि नीतीश कुमार अब पहले जितने लोकप्रिय नहीं है और बहुत लोग बदलाव चाहते है। लेकिन उनके प्रतिद्वंदी तेजस्वी यादव राजीनीति में नीतीश कुमार से बहुत पीछे है। प्रधानमंत्री मोदी बिहार में बहुत लोकप्रिय हैं और वे एक ठोस गठबंधन के साथ चुनाव के परिणाम को बदल सकते हैं। कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसे सभी समुदाय के वोट मिलते हैं लेकिन फिर वह इतनी कमजोर है कि वह अपने दम पर 5 से 10 सीटें भी नहीं जीत सकती है। बिहार में तीन प्रमुख राजनीतिक दल हैं - भाजपा, राजद और जद (यू), और कुछ छोटे दल जैसे लोजपा, कांग्रेस, आदि। इसलिए अंकगणित रूप से भाजपा और जद (यू) का राजद और कांग्रेस पर बढ़त है। लेकिन कोई भी चुनाव वोट डालने तक बदल सकता है।

कोरोना, लौटने वाले प्रवासी मजदूर अभी भी एनडीए को परेशान कर सकते हैं, लेकिन राजद शासन के वैकल्पिक मॉडल को प्रस्तुत करने में विफल रहा है। 2020 में भी लालू-राबड़ी युग (1990-2025) की याद राजद को परेशान करती है। कोरोना के समय मतदान के दिन मतदाताओं को वोट देने ले जाना और गठबंधनो में सीटों का बंटवारा, अंतरकलह को रोकना इत्यादि चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सकते है। बीजेपी को अभी भी बिहार में सोशल मीडिया के मामले में पर दूसरों पर अच्छी बढ़त हासिल है और यह वर्चुअल चुनावी रैलियों में महत्वपूर्ण हो सकता है।

Role of caste equation in 2020 Bihar Assembly election

Even in 2020, caste & religion play an important role in the politics of India. Many times, Bihar and UP are associated with caste politics but this is the problem of the whole of India. Caste equations play an important role even in more educated & developed states like Maharashtra, Karnataka, Kerala, etc.

In Bihar, caste politics has higher visibility because the power of caste is assumed to be proportional to the number of MLAs belong to that caste. Unlike many other states, political power has an upper hand than money power in Bihar. As always caste politics is going to play an important role in the 2020 assembly election. But then the caste lines are becoming more blurry with each passing election. Otherwise, Modi would not have swept the 2014 and 2019 General election. But then caste politics reappeared in the 2015 general election and Grand Alliance humiliated BJP. Let us see analyze how the caste equation can affect the 2020 election.

  • The core vote bank of RJD (Yadav + Muslim) is still by and large intact. And RJD-Congress alliance means that they would get almost all Muslim votes. This alliance has the potential to dominate Muslim majority seats in North-East Bihar (Katihar & Purnia region which is very near to Bangladesh). But Owaisi's AIMIM can damage the Grand alliance as they surprised last year by winning the Kishanganj by-poll.
  • BJP is gradually becoming the second choice of the Yadav community. majority are still with RJD but BJP is trying to get some votes as BJP is trying to create a new leadership in form of junior Union Home Minister Nityanad Rai (a leader from the Yadav community). In some pockets where BJP has strong Yadav leaders like Ramkripal Yadav, Nityanad Rai BJP may get significant Yadav votes.
  • Among non-Yadav OBCs, Koiri & Kushwaha community are still with Nitish Kumar despite the emergence of Upendra Kushwaha. JD(U) has a slight edge over RJD & BJP among other OBCs (called MBCs) due to the popularity of Nitish Kumar.
  • Among Dalits, LJP has a vote bank among the Paswan community but Nitish Kumar has an edge in the Mahadalit (a sub-category of Dalit) community. RJD, Congress, and BJP may also win a section of Dalits. Nitish Kumar has been very successful in creating a vote bank among MBC and Mahadalits.
  • BJP is favorite to win the most number of upper caste votes. Congress still has a small loyal vote bank among the upper caste. JD(U) and RJD have some upper caste leaders who can get votes in their own pockets. The state president of RJD Jagdanad Singh is a Rajput but it seems that RJD has lost some of its loyal Rajput vote banks after the sidelining & death of Raghuwansh Babu. Also last year, RJD had opposed the reservation of poor General category in Parliament.
  • On paper, NDA has an edge as per caste calculation. It's quite clear there is a fatigue factor with Nitish Kumar but his challenger Tejaswi Yadav is no match for Nitish Kumar. PM Modi is very popular in Bihar and he can swing the election with a solid alliance. Congress is the only party that gets the votes of all community but then it is so weak that it can't win even 5–10 seats on its own. Bihar has three major political parties - BJP, RJD, and JD(U), and some minor parties like LJP, Congress, etc. So, arithmetically BJP&JD(U) has a lead over RJD & Congress. But any election is not over until it's over.

Corona, returning migrant laborers can still create an issue for NDA but then RJD has failed to present an alternative model of governance. Even in 2020, the memory of the Lalu-Rabri era (1990–2005) continues to haunt RJD. The seat-sharing and mobilization of voters on the polling day will play an important role. BJP still enjoys a good lead over others on social media in Bihar and this can be crucial in virtual election rallies.

Thursday, September 17, 2020

How long India-China stand-off will continue?

Most probably Chinese President Xi Jinping thought that India is a pushover and grabbing the land from India will make Xi more popular in China. But like his friends in Pakistan, he made a mistake of understating Indian response.

Now India has decided to hit back along LAC and decided to challenge Chinese aggression, China is rattled. China's biggest concern was that India was building infrastructure along LAC. They have built their roads & bridges but they don't want India to do the same. The Galwan clash has won India the right of building infrastructure along LAC. Now, India is building additional roads at a greater pace along LAC and India will not ready to stop building roads with China. The preemptive action on the night of 29th & 30th August by India has ensured that any agreement would mean both Armies going back to the status quo of April 2020. This would mean that China will not be able to stop India from building roads.China had not anticipated such an Indian response and its leadership is rattled. That's why we can find so many articles in Global times threatening India. There are also reports that China has decided to teach India a lesson. On the other hand, India has decided not to cede an inch under Chinese aggression. So both sides are ready to continue the stand-off. The winter weather in such harsh terrain would be very tough for both Armies to continue the stand-offs. Traditional wisdom would mean both armies withdrawing in winter but enemies strike when you least expect them to attack. Pakistan captured Indian peaks along LOC in the Kargil sector in winter of 1998–99 when the Indian Army vacated those peaks in winter.

So, India can’t afford to withdraw in winter. China can't withdraw for winter because any Chinese withdrawal would signal to the world that China has lost the stand-off. And any such symbolic withdrawal would dent the image of Xi Jinping. Even the legacy of Indian PM Modi is on the line in this stand-off. So both sides are ready to dig in for a long stand-off. But the Indian side has a slight advantage that it is more accustomed to clashes/tensions in such harsh winter (due to its experience in Siachen & Kargil). Indian side very well knows that they can't trust Chinese (due to the historically changing position of China) and any agreement would not mean anything in the long future.

So, the onus is on China. The Indian position is clear that both countries should restore the status quo of April 2020. If China agrees to it then it would mean that both objectives of China to start the standoff would remain unfulfilled - stopping India from building the roads & grabbing Indian land. Now Xi Jinping is looking for an exit strategy and if he fails to get a respectable strategy then the standoff will continue for many more months.

Tuesday, September 1, 2020

वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में भारतीय जीडीपी (-23.9%) में रिकॉर्ड कमी

कोरोनोवायरस के कारण दुनिया को बहुत बड़ी मंदी कासामना करना पड़ रहा है। ऐसी आशंकाएं हैं कि यह मंदी 1929 की मंदी से भी बदतर हो सकती है। शायद पिछले कुछ सौ सालों में दुनिया ने ऐसी मंदी नहीं देखा है।

कोरोनावायरस अभी भी खतरनाक रूप से दुनिया को प्रभावित कर रहा है और वायरस के टीके अभी भी कुछ महीने दूर हैं। और भले ही इस साल तक टीके मिल भी जाये तो बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन एक बड़ा मुद्दा होगा। इसलिए, हमें जल्द ही कोरोना से किसी भी राहत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं का पिछली तिमाही का प्रदर्शन बहुत ख़राब रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था में 23.9% की गिरावट, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में 32.9% की कमी, ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 20.4% की कमी, जर्मन अर्थव्यवस्था में 9.7% की गिरावट, फ्रेंच अर्थव्यवस्था में 14% की गिरावट, इतालवी अर्थव्यवस्था में 12.4% की गिरावट, जापानी अर्थव्यवस्था में गिरावट 7.2% हुई है इसलिए हम कह सकते है कि यह एक इसकी वैश्विक घटना और यह स्थानीय नहीं है। वैसे जहाँ कोरोना का मार जितना धिक् हुआ है वहां की अर्थव्यवस्था अधिक प्रभावित हुआ है जिसे - अमेरिका , भारत , ब्रिटैन इत्यादि। 

लेकिन भारत का मामला थोड़ा अलग है क्योंकि कोरोना संकट से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था सबहुत अच्छी हालत में नहीं थी। एनपीए (बैंकों के डूबे हुए बड़े लोन) के भारी संकट ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है और मोदी सरकार और आरबीआई ने भी इस मुद्दे पर देर से काम करना शुरू किया। उर्जित पटेल आरबीआई गवर्नर बाने के बाद आरबीआई ने इसपर सही में काम करना शुरू किया (यह माना जाता है कि उनके पूर्ववर्ती गवर्नर वास्तव में इस मुद्दे को बहुत ध्यान नहीं दिया ) एक और मुद्दा यह था कि भारत में पहला और दूसरा लॉकडाउन बहुत गंभीर था और भारत लगभग ठहर गया था। सब कुछ बंद था लेकिन फिर भी लोगों और सरकार ने इसको गंभीरता को नहीं समझा और आज भी कोरोना बढ़ ही रहा है।  अमेरिका और यूरोप में भी तालाबंदी हुई थी लेकिन यह भारत की तरह सख्त नहीं था। इन दिनों भी भारत में नए मामलों का दैनिक औसत लगभग 80,000 है और भारत में अभी भी अभी भी कुछ प्रकार के लॉकडाउन चल रहे हैं और हमारे स्कूल और कॉलेज अभी भी बंद हैं। भारत की जीवन रेखा - भारतीय रेल अभी भी लगभग बंद है। अंतर्राष्ट्रीय उड़ान बंद है और आज भी बहुत पाबन्दी है। 

आइए अप्रैल - जून 2020 की तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के प्रदर्शन को देखें। विनिर्माण, निर्माण और व्यापार क्षेत्र क्रमशः 39.3%, 50.3%, 47% पर बड़े पैमाने पर संकुचन हुआ हैं। वित्तीय क्षेत्र में 5.3% का संकुचन हुआ और एकमात्र उज्ज्वल किरण कृषि क्षेत्र रहा है जो 3.4% बढ़ा है। वैसे कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पुरे भारत के अर्थव्यवस्था को इस मंदी से नहीं बचा सकती है।  एसबीआई के अनुमान के अनुसार भारतीय सकल घरेलू उत्पाद 2020-21 में पूरे वर्ष में लगभग 10% कम हो सकता है। अन्य अनुमान कहते हैं कि इस वर्ष भारतीय जीडीपी वृद्धि -6 से -10% के बीच हो सकती है। उम्मीद है कि दूसरी तिमाही और तीसरी तिमाही निस साल की पहली तिमाही की तरह खराब नहीं होगी। चूंकि भारत को कोरोनावायरस के सबसे अधिक कहर देखना अभी बाकी है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि चौथी तिमाही (जनवरी 2021-मार्च 2021) में सकारात्मक आर्थिक वृद्धि देखी जाएगी। सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत में मांग बहुत कम हो गयी है।  उदहारण के लिए इस साल लोग अपने बड़े बड़े खरीददारी को अगले साल के लिए टाल रहे है।  साधारण शब्दों में बहुत से लोग कार , मोटर साइकिल , गहने , इलेक्ट्रॉनिक सामान , कपड़े इत्यदि पिछले साल की तुलना में कम खरीद रहे है। लोगों को भविष्य को ले कर अनिश्चितता है और वो पैसे बचा कर रखना छह रहे है। जब तक अर्थव्यवस्था में सामानों को मांग नहीं होगी, अर्थव्यवस्था ठीक से इस मंदी से उबर नहीं पायेगा।

भारतीय सरकार की वित्तीय स्थिति भी अच्छा नहीं है। जीएसटी के राजस्व बंटवारे को लेकर केंद्र और राज्य के बीच तल्खी चल रही है। और सरकार को आने वाली तिमाहियों में किसी प्रकार का आर्थिक  पैकेज देना होगा। दो विकल्प हैं - अधिक ऋण लें या और पैसे छापे। और दोनों दीर्घकालिक समय में अच्छे नहीं हैं। ऐसी आशंकाएं हैं कि जीडीपी अनुपात में ऋण 85 से 90% तक जा सकता है (जो कि विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं है) ज्यादा पैसे छापने का मतलब होगा महंगाई और सरकार। चुनावी हार के डर से रास्ता नहीं चुना जा सकता है। मुझे उम्मीद है कि भारत में कम से कम "वी" आकार की आर्थिक वृद्धि  होगी लेकिन अगर सर्दियों में दूसरी कोरोना लहर होती है तो भी "डब्ल्यू" आकार की वृद्धि में  संदेह में होगी। और यह संकट 2021-22 की आर्थिक वृद्धि को भी खींच लेगा। इसलिए मार्च 2022 के अंत में भी यदि हमारी जीडीपी मार्च 2020 के स्तर पर है तो यह भारत के लिए बहुत अच्छा परिणाम होगा।

1990 में भारतीय लोगों को कुवैत से निकलना और 2022 में भारतीय लोगों को यूक्रेन से निकालने में अंतर

  1990 में कुवैत से 170,000 भारतीयों को हवाई मार्ग से निकलना मानव इतिहास में सबसे बड़ी एयरलिफ्ट (जिसमें नागरिक विमानों का इस्तेमानल किया गया...

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